गरीबी अथवा दरिद्रता का कारण !!
मनुष्य बुद्धि समझ के परे , एक “spiritual realm” आध्यात्मिक जगत का स्वरूप है जो उसके प्रत्येक कर्म को नियंत्रित करती है । यही आध्यात्मिक स्वरूप की समझ से मनुष्य अपने existence को समझ सकता है । कोई भोगी है तो क्यूँ है ?? कोई त्यागी है to क्यूँ है ?? कोई पीड़ित है to क्यूँ है ?? इत्यादि
चलिए आज इससे पर विचार करते हैं ।
आदि काल से आर्य ऋषि मुनियों ने मनुष्य के सर्वत्र समस्या के निवारण के लिए , ध्यान के माध्यम से , समाधान को खोज निकालने की चेष्टा की है । इसी के फलस्वरुप उन्होंने पांच महा यज्ञ प्रक्रिया का विश्लेषण किया ।
1। ब्रम्हा यज्ञ
2। देव यज्ञ
3। ऋषि यज्ञ
4। भूत यज्ञ
5। पितृ यज्ञ
इनके करने से संपूर्ण सृष्टि का ecological balance परिपूर्ण रेहता था , जिसके फलस्वरुप मनुष्य जाती को संपूर्ण रूप से परिपुष्ट करती थी । जिस व्यक्ती का जितना contribution यज्ञ के प्रति वह उतना ही परिपुष्ट जीवन का भागी होता था। देना ही है पाने की जननी ।
यज्ञ की आहुति किसे दी जाती थी ??
वास्तव मे सभी यज्ञ के ग्रहण कर्ता सच्चिदानंद परमात्मा ही होते हैं । उनकी इच्छा से ही मनुष्य अपने कर्मानुसार फलों को भोगता है । गीता की कुछ श्लोक इस प्रकार है
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव: |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:।
संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं , अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है , वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उत्पन्न होने वाला है । कर्म समुदाय को तू वेद से उत्पन्न और वेद को अविनाशी परमात्मा से उत्पन्न हुआ जान।
यज्ञ का व्यवहारिक (practical) स्वरूप!!
युग अनुकूल यज्ञ को करने के अनेक मार्ग रहे हैं । सत्य युग मे पांच महा यज्ञ ही श्रेय था । ब्राह्मण गण समुदाय मनुष्य की कल्याण के लिए यज्ञ किया करते थे ।
त्रेता युग मे इसी यज्ञ का उल्लेख इन्द्रजीत (रावण के पुत्र) के माध्यम से बतलाया गया है । इन्द्रजीत निकुंबला यज्ञ किया करते थे , जिसके कारण उनको रण क्षेत्रः में हरा पाना असंभव था। तब श्री हनुमान , मक्खी का रूप धारण कर उनके यज्ञ को तोड़ते हैं , और इन्द्रजीत को तब कहीं जाकर लक्ष्मण मार पाते हैं ।
द्वापर युग मे अर्जुन समेत धर्माचरण करने वाले अन्याय यज्ञ के माध्यम से ही कौरवों की विशाल सेना हो हरा पाए थे। यज्ञ के माध्यम से ही उन्होंने हनुमान , माँ दुर्गा को प्रसन्न कर विजय का पताका लहराया। यज्ञ के माध्यम से ही कर्ण को उनका अंग वस्त्र मिला था जो अभेद था ।
कलियुग में यज्ञ कैसे हो??
श्री कृष्ण गीता सार में बतलाते हैं ;
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः ।।
यज्ञ के द्वारा बढ़ाए हुए देवता तुम लोगों को बिना मांगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देंगे। इस प्रकार उन देवताओं के द्वारा दिये हुए भोगों को जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है वह चोरी कर्ता है।
यहां पर बतलाते हैं मनुष्य के दरिद्रता का कारण। हमलोग धन अर्जित कर जब स्वयं भोगते हैं एवं जब हमारा संचित कर्म शेष हो जाता है , मनुष्य को अलक्ष्मी ग्रास करती है ।
जितना कठिन कर्म ही क्यूँ न करे, लक्ष्मी जैसे अप्रसन्न हो उठी हो ।
कलियुग के अवतरित परमब्रह्म स्वरूप पुरूषोत्तम श्री श्री ठाकुर अनुकूल चंद्र चक्रवर्ती , ईष्टभृति यज्ञ दे कर गए। नित्या ब्रम्हा मुहूर्त में नाम ध्यान पश्चात ईष्टभृति अर्घ्य निवेदन करने से सभी पांच महा यज्ञों की उत्पत्ति होती है । निष्ठा स्वरूप करने पर स्वयं ब्रम्हा वित्त पुरूषोत्तम अपने यज्ञोपवित को पकड़ कर बतलाते हैं – करने से मंगल होगा ही।
सभी वेदों का सार अपने बीज़ मंत्र में फूंक दिया और कलियुग मे JAJAN , JAAJAN, ISHTABHRITI, SWASTAYANI, SADAACHAR को ही सर्वश्रेष्ठ धर्माचरण बतलाया। इनके करने से ही मनुष्य के सभी समस्याओं का समाधान मिलेगा ही ।
अगली कड़ी में हम लोग जानेंगे पुरुषोत्तम कौन होते हैं ?? और क्या निम्नांकित श्लोक सत्य है ?? अगर है तो फिर अभी पुरुषोत्तम कैसे जन्म ग्रहण करेंगे ।।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।। ???