विवाह के प्रकार एवं उनके परिणाम !!

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विवाह के मुख्या प्रयोजनों में से है विस्तृति लाभ करना अपने वंश के माध्यम से , और इसी से ही पिता अपने पुत्र एवं पुत्री के माध्यम से अनंत काल तक सुषुप्त अवस्था (genetically) में व्याप्त रहता है । प्राचीन आर्य ऋषि मुनिओ ने बतलाया की अगर संतान संतति पिता माता से superior ( श्रेष्ठ ) न हो , तो फिर विवाह का प्रयोजन ही नहीं रह जाता ।

यह सत्य भी है । हर कोई चाहता है की उनके बच्चे उनसे ज्यादा अच्छा काम करें , नाम कमाए और अपने पिता माता को गौरवान्वित करें ।

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परन्तु यह हो कैसे ?? हम जो चाहते हैं क्या उसके स्वरुप हम अपने बच्चों को बना पाते हैं ?? नहीं तो क्यों नहीं ?? कारण क्या है ??

इसी कारण को जानना ही है धर्म ( विषय के मूल कारन को जानना , न की हिन्दू , मुस्लिम , सिख , इसे इत्यादि ) .

स्वामी विवेकानंद के पास शिकागो के नव विवाहिता दंपत्ति इसी आस में गए थे की उनके यहाँ स्वामीजी जैसे बच्चे का जन्म हो । यह उनके विवाह के एक साल के उपरांत हुआ था । स्वामीजी ने उनसे कहा की “आपने आने में देरी कर दी ” .

वास्तव में ” A good human being is born , not made ” !! एक अच्छा मनुस्य ( आत्मा ) जन्मा दिया जाता है । बनाया नहीं जा सकता ।

और इसी विधि के क्रम में अच्छा विवाह संस्कार एवं सु प्रजनन ।

आर्य ऋषिओं ने 3 प्रकार क विवाह का मार्ग दर्शन किआ ।

१। सवर्ण अनुलोम – पुरुष अपने कुल की कन्या से ही विवाह करे , सर्व प्रथम । इससे original genetic heredity ( जैविक संस्थिति ) प्रदुसित नहीं होती ।

भारतीय मूल के लोग गोत्र परंपरा को फॉलो करते हैं । अर्थात भृगु , वशिष्ट , गौतम इत्यादि ऋषिओं का DNA सुसुप्त अवस्था में उनके वंशधर में निहित है । अगर प्रथम विवाह अपने कूल में नहीं होता है , तो इससे ओरिजिनल जेनेटिक हेरीडिटी लुप्त होने की सम्भावना रहती है ।

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२। असवर्ण अनुलोम – पुरुष अपने से नीचे की कुल की कन्या से विवाह कर सकता है । परन्तु यह विवाह प्रथम नहीं होना चाहिए । आइए इसका कारन जानते हैं !!प्रकृति की रचना सत्व , रजो एवं तमो गुण के विभिन्न “mathematical combination” के आधार पर हुई है । प्रकृति नियमानुकूल सत्त्व गुण व्यक्ति को विवर्तन (genetic evolution) की श्रेणी में ऊपर रखा गया है । यह कॉमन सेंस भी है जैसे की अस्वच्छ रहना किसे पसंद है ?? indiscipline से लक्ष्य की प्राप्ति होती है ?? संत या मदिरा भक्षी में से कौन इस्वर को ज्यादा प्रिय होता है ??फिर देखा गया है की पिता की liking अटवा गुण संतान में संक्रमित होती ही है । आर्य ऋषिओं ने इसी को पीढ़ी दर पीढ़ी कल्चर किया और इसी से चतुस वर्ण की सृष्टि हुई । जिनमे सत्त्व गुण डोमिनेट रहा “genetically” उन्हें बिप्र का दर्जा मिला , जिनमे रजो गुण मिला उन्हें क्षत्रिय की श्रेणी में , जिनमे रजो एवं तामस का “proportion” है उन्हें वैस्य एवं तमो गुनी लोगों को सूद्र की श्रेणी में । यह पीढ़ी दर पीढ़ी सही पोषण के माध्यम से preserve होकर चलता आया है । इसका अर्थ बिप्र विवर्तन के श्रेणी में ऊपर , तत्त्पश्चात क्षत्रिय , फिर वैस्य एवं अंत में सूद्र । मनुस्य अपने पिछले कर्मा एवं चिंतन के अनुरूप अपने कुल में जन्म ग्रहण करता है । जब ऊपर की श्रेणी के पुत्र का अपने से नीचे की श्रेणी के कन्या से मिलान होता है , संतति “shall be superior to mother but inferior to father” . उदहारण सहित अगर देखें – अगर पुरुष में 90% सत्त्व गुण हैं एवं कन्या 60% सत्त्व गुनी है , तो नैचुरली संतान पिता से काम एवं माता से अधिक होगी ( मान लीजिए 75%) . हम देख सकते हैं गोत्र परंपरा धीरे धीरे “dilute” हो जाती है ।दूसरी बात अब वह संतान अपने पिता की कुल की कन्या से विवाह नहीं कर सकता , अन्यथा “genetically” वर्ण संकर की उत्त्पत्ति होगी । उदहारण सहित अगर देखते हैं – भूमिहार वार्ना की उत्त्पत्ति बिप्र पिता एवं क्षत्रिय माता के आधार पर हुई । संस्कृत में उन्हें मूर्धाभिषिक्त भी कहते हैं । भूमिहार पुरुष किन्तु बिप्र कन्या से विवाह नहीं करता – कारन यही है ।

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३। प्रतिलोम विवाह – यह वर्जित है । उच्चा वर्ण की कन्या अपने से काम सत्त्व गुनी पुरुष से विवाह नहीं होना चाहिए । संतान उत्त्पत्ति के समय पुरुष बीर्य (seed) प्रदान करता है एवं माँ मिट्टी का काम करती है । अपने गन अनुसार उस बीज को पोषण देती है । अर्थात स्वामी में व्याप्त जो जो गुण स्त्री को पसंद होंगी , उन्ही गुणों का “geometric-progression” हो विस्तार होता है एवं जो गुण स्त्री के “temperament” के विर्रुध रहेंगी उनका पोषण ही नहीं हो पाटा ।

अगर स्त्री अपने स्वामी से ऊंचे गुण की है तो “spiritually” वो शरणापन्न की भावना आ ही नहीं सकती । उसके “DNA” में सुसुप्त उसके पितृ पुरुष गण मनो “revolt” का देते हैं और इस भाव धरा में जन्मा संतान देश , घर , समाज एवं देश के लिए सर्वनाश होता है । साधारणता : इसको बोध करने के लिए नारी को तपस्वी होना होगा । उद्धरण के तौर पर हम अफ़ग़ानिस्तान को देख ही रहे हैं । यही है प्रतिलोम “hypogamous” विवाह का परिणाम । अगर किसी भी देश में इनकी संख्या बढ़ जाए तो सर्वनाश है ही ।

इसलिए अगर भारत वर्ष को बचाना है तो आर्य ऋषिओं की विवाह संस्कार को बचा के रखना ही होगा । दूसरा और कोई रास्ता नहीं है ।

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