मानवीय सभ्यता में गुरु अथवा मास्टर का बहुत ही गंभीर प्रयोजन है । गुरु वे होते हैं जो मनुस्य को अज्ञान रुपी अन्धकार से निकाल कर ज्ञान रुपी उजाले की तरफ ले जाते हैं । अच्छे गुरु का कितना जो महत्वा है हम लोग इस घटना से अनुमान लगा सकते हैं ।एक बार रामकृष्ण परमहंस देव( स्वामी विवेकानंद के अध्यात्म गुरु ) जी अपने सिस्यों समेत एक रास्ते से गुजर रहे रहे थे । वहीँ एक स्वान (dog) के सरीर पर कीड़े रेंग रहे थे और वह पीड़ा से कराह रहा था । स्वान की उस अवस्था को देखकर , गुरुवर को दया आ गयी और उन्होंने अपने शिष्यों से उसे साफ़ करने को कहा । संध्या के समय उस स्वान की उस अवस्था के विषय में पूछने पर , गुरुदेव ने बतलाया की यह स्वान अपने पिछले जनम में एक आध्यात्मिक गुरु हुआ करता था , और वे कीड़े उसके सिस्य । आधे अधूरे ज्ञान के कारण वह कुत्ता अपने पिछले जनम के सिस्यों को पूर्ण , एवं सही विद्या देने में असफल रहा । फलस्वरूप इस योनि में स्वान के सरीर में प्रवेश मिला , और वही कीड़े उसके शिष्य ।हम समझ सकते हैं , गलत रास्ते पर चलने का परिणाम ।
गुरु के प्रकार !!वैसे तो जिस किसी से भी मनुस्य ” ईश्वरत्व ” का पथ सीखता है , वही उसके ख्यानिक (momentary) गुरु होते हैं परन्तु जीवन काल में मनुस्य अनेक जीवन चर्या की विद्या करहां करता है । स्वभावतः इसलिए गुरु आते हैं ;१। अध्यापक के रूप में ।२। उपाध्याय के रूप में ।३। आचार्य के रूप में । ४। पंडित के रूप में । परन्तु सर्वश्रेस्थ होते हैं , सद्गुरु जो जीवन चर्या , बचने एवं बढ़ने का कौशल सिखलाते हैं ।
सद्गुरु कौन होने चाहिए ?? उनको पहचाने कैसे ??
कोई भी सद्गुरु कहलाने के उपयुक्त नहीं होता । सद्गुरु की श्रेणी में सर्व प्रथम स्थान होता है युगानुकूल अवतरित पुरुषोत्तम । वे जन्मसिद्ध होते हैं । उन्हें साधना करने की आवस्यकता नहीं होती । वे जो बतलाते हैं , उसे अपने आचरण में कर के दिखाते है । साथ ही साथ , वे युग के अनुकूल बचने और बढ़ने का कौशल सिखाते हैं । साथ ही वे सह परिवार लीला करते हैं । एकांत अकेले नहीं रहते । श्री राम चंद्र – मर्यादा पुरुषोत्तम श्री कृष्णा – लीला पुरुषोत्तम श्री श्री ठाकुर अनुकुलचंद्र चक्रबोर्ती – युग पुरुषोत्तम साथ ही साथ पुरुषोत्तम अपने वार्ता वाही “आचार्य परमपरा” के माध्यम से , पीढ़ी दर पीढ़ी भेजते रहते हैं । यानि उनकी बातें आचार्य परंपरा (disciplic succession) के माध्यम से युग से सेष तक एवं उसके पश्चात भी चलती रहती हैं ।इस पर श्री कृष्ण गीता में बतलाते हैं – “ इमाम विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम , विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्श्वाकावेबृवीत – मैंने इस महान योग को पहले सूर्यदेव ( विवस्वान ) को सिखलाया , जिन्होंने मनु को सिखलाया और राजा मनु ने इसकवाकु को ” . फिर बतलाते हैं – ” एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु: , स कालेनेह महता योगो नष्ट: परन्तप – हे सत्रुविजयी , इन् सभी देविया राजाओं ने यह ज्ञान को परंपरा से पाया “ . समय क्रम में जब यह विद्या लुप्त हुई तो स्वयं भगवन अवतरित हुए अर्जुन एवं मानव जाती के ह्रदय में योग की भावना को फिर स्थापना करने हेतु ।श्री कृष्णा के महाप्रयाण के पश्चात जब वही परम्परा फिर से लुप्त होने को आयी तब श्री प्रभु चैतन्य महाप्रभु के रूप में अपने पांच सखा संग जन्मे और फिर से उसी योग परंपरा को सरल कीर्तन के माध्यम से पूरे भारत वर्ष में प्रचार किया । परन्तु जैसे जैसे कलियुग अपनी गंभीरता की तरफ अग्रसर होता है , श्री प्रभु समय समय के अंतराल में अवतरित होते हैं जीवोद्धार के लिए .यह विज्ञानं का युग है । जब मानवीय सभ्यता अविश्वास , भोग , क्रोध एवं काम की तरफ अग्रसर हुआ , तो फिर से जन्मे श्री प्रभु 1888 इसा पश्चात , बंग प्रदेश के हिमाईटपुर ग्राम में , ब्राह्मण परिवार , शांडिल्य गोत्र युग पुरुषोत्तम श्री श्री ठाकुर अनुकुलचंद्र चक्रबोर्ती के रूप में । इस बार भी वही आचार्य परंपरा स्थापना करते हैं । इष्ट गुरु पुरुषोत्तम , प्रतिक गुरु बंसधर रेट सरीर में सुषुप्त रहकर वे जीवंत निरंतर – श्री श्री ठाकुर ।आज झारखण्ड के देओघर धाम में हम पुरुसोत्तम दर्शन एवं उनके आचार्य परम्परा दर्शन कर धन्य हो सकते हैं ।
आचार्य परंपरा का रहस्य ??
श्री कृष्ण बतलाते हैं – प्राप्य पुण्यकृतां लोकानुषित्वा शाश्वती: समा: |शुचीनां श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोऽभिजायते अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम् एतद्धि दुर्लभतरं लोके जन्म यदीदृशम् । प्रत्येक मनुस्य का लक्ष्य है इस्वर , अथवा पुरुषोत्तम को सेवा देना – “ we are eternal servitors to lord ” . परन्तु प्रकृति के संघात के कारण मनुस्य निरंतर पतित होता है । फिर भी जो उनके प्रति प्रेम थोड़ी सी भी जागृत करता है , वह अपना परवर्ती जीवन में जहाँ से उस प्रेम को त्यागा था , वहीँ से अग्रसर होता है । ऐसा करते करते प्रभु की दया के फलस्वरूप वह कई जन्मो के पश्चात एक भक्ति से पूर्ण जीवन प्राप्त करता है । इसलिए दो तरह के योगी होते हैं – 1 . जिन्होंने कम समय काल के लिए योग किया फिर पतित हुए – प्रभु की दया से उनका परवर्ती जीवन एक ऐसे कुल में होता है जहाँ सभी सुख साधन उपस्थित हो , और वह योगी अपने “sub-conscious” के पश्चात , उन् सभी सुविधाओं का लाभ उठाते हुए , भक्ति की वृद्धि करें । इसका जीवंत उद्धरण राजा भारत जिनका परवर्ती जीवन ब्राह्मण कुल के सबसे छोटे पुत्र के रूप में हुआ । बचपन से ही शांत एवं अकेले रहते थे , बाद में पता चला परम तत्त्वरतभसि हैं .२। जिन्होंने कई जन्मो से योग साधना किया हो – वैसी पुण्य आत्माएं , परवर्ती जीवन उच्च वंश , में जन्मा लेते हैं , जिनका “family tradition” पारिवारिक परंपरा ही उच्चा श्रेणी के “transcendentalists” अनुभवातीत को पोषण दे रहा हो । वैसे जन्म बड़ा दुर्लभ है । देओघर के सत्संग आश्रम में हम वैसी परंपरा देख सकते हैं ।
सार !!
अन्य उपयुक्त ज्ञान के स्रोत –
न भटकें . प्रत्यक्ष आदर्श को पहचाने और अपने अनंत जीवन का मार्ग चुने ।
१। चैतन्य महाप्रभु एवं उनके परम्परा युक्त शिष्य ए स भातिवेदान्तस्वामी प्रभुपाद .
२। आदि शंकराचार्य एवं उनके पारम्परिक शिस्य -स्वामी निश्चलानद जी .