सर्व धर्मं परित्यज्य मॉम एकम सरणम ब्रज

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सर्व धर्मं परित्यज्य मां एकम सरनाम ब्रज ;

अहम् त्वमेव सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि माँ सुच : !!

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श्रीमद गीता का यह स्लोका मनुस्य के बुद्धि और लक्ष्य का निर्णायक है । वास्तव में हम सब जो धर्म को लेकर एक विकृत धरना बनाये हैं , ऐसा है ही नहीं । धर्म का मूल अर्थ हिन्दू , मुस्लिम , सिख, ईसाई नहीं है ; परन्तु जो धारण कर के रखता है वही है धर्म । जिस प्रक्रिया को मानने से मनुस्य “be and become” बचता और बढ़ता है , अपने अस्तित्वा को क्षीण किये बिना वही है धर्म । और इसी अस्तित्वा के मूल में है अपने इष्ट अथवा आराध्य देव के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा व भक्ति , चाहें वे श्री राम के रूप में हो , श्री कृष्णा हों , येसु हों , या हज़रात रसूल ही क्यों न हों । बिना इष्ट के धर्म को नहीं समझा जा सकता – ” I am the way , the life , the truth , none can reach the Father but through me , Bible ” . इसलिए प्रत्येक मनुस्य का लक्ष्य है “be concentric” केन्द्रायित हो जाना , अपने गुरु अथवा आदर्श के प्रति । बिना केन्द्रायित हुए धर्म को नहीं समझा जा सकता – ” ज्ञानी योगी सब पीली रहे सब मन की खानी ” .

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आज पुरे भारत वर्ष में लोग ज्ञान की अनंत विवेचना करते हैं । बड़े बड़े दार्शनिक समाज को समाधान की तरफ लेने को व्याकुल हैं , इस्पे रिसर्च आर्टिकल भी छापते हैं , लेकिन फिर भी दिन प्रतिदिन हम “chaos एवं anarchy” की तरफ क्यों बढ़ रहे हैं ??

कारन हैं ह्रदय में भक्ति नहीं रहने पर प्राकृत सूक्ष्मरूपी समाधान नहीं मिल सकता । उदहारण तौर पर –

आज अफ़ग़ानिस्तान की जो अवस्था हैं उसको लेकर बहु रिसर्च आर्टिकल्स छपे हैं , कारन को समझने के लिए , परन्तु कोई भी आर्टिकल श्री गीता के इस स्लोका को consider  नहीं करता – ” दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः , उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वतः – ” वंस परंपरा को तोड़ने के कारण , अनचाहे संतान की उत्पत्ति होती हैं , जो किसी भी प्रकार के सकारात्मक कार्य को अव्यवस्थित कर देते हैं ” . यह वंस परंपरा हैं वर्णाश्रम धर्म प्रदत्त शिक्षा एवं विवाह संस्कार । दोनों के ही गड़बड़ी अफ़ग़ानिस्तान में तब हुए जब महाभारत के पश्चात , समाज में उच्चा वार्ना क पुरुष युद्ध क्षेत्र में मारे गए . इससे स्तरीय “guardianless” होने पर समाज में प्रतिलोम विवाह ( उच्चा वार्ना की कन्या का , नीचे वार्ना की पुरुष से मेल ) का प्रकोप बढ़ा जिससे वार्ना संकर की उत्त्पत्ति हुई , जो आज अफ़ग़ानिस्तान में “stability” वर्त्तमान समय में नहीं आने दे रहे हैं , युद्ध के लिए लालायित हैं सर्वदा ।

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अगर भारत वर्ष में भी हम इस आइडियोलॉजी को मानना बंद कर देंगे तब हमारा भविस्य भी वही होगा ।

इसलिए उपयुक्त श्लोक में श्री कृष्णा समझाते हैं – सभी प्रकार के धर्म को त्याग सकते हो – चाहे वह काम का धर्म , क्रोध का धर्म , लोभ का धर्म , मोह का धर्म , मात्सर्य का धर्म , प्रचलित संस्कार का धर्म अथवा मनगढंत संस्कार का धर्म ही क्यों न हो , परन्तु उन्हें नहीं त्यागा जा सकता । उन्हें नहीं त्यागने का अर्थ है शरणापन्न होना , सतनाम मनन करना , सत्संग का आश्रय ग्रहण करना , तभी जाकर प्राकृत बुद्धि और चाख्यो मिल सकती है । !!!

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